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लाहौल-स्पीति: प्रकृति का अछूता नजारा

Jagran Yatra
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चारों तरफ झीलों, दर्रो और हिमखंडों से घिरी, आसमान छूते शैल-शिखरों के दामन में बसी लाहौल-स्पीति घाटियां अपने जादुई सौंदर्य और प्रकृति की विविधताओं के लिए विख्यात हैं। हिंदू और बौद्ध परंपराओं का अनूठा संगम बनी इन घाटियों में प्रकृति विभिन्न मनभावन परिधानों में नजर आती है। कहीं आकाश छूती चोटियों के बीच झिलमिलाती झीलें हैं तो कहीं बर्फीला रेगिस्तान दूर तक फैला नजर आता है। कहीं पहाड़ों पर बने मंदिर व गोम्पा और इनमें बौद्ध मंत्रों की गूंज के साथ-साथ वाद्ययंत्रों के सुमधुर स्वर एक आलौकिक अनुभूति से भर देते हैं तो कहीं जड़ी बूटियों की सौंधी-सौंधी महक और बर्फ-बादलों की सौंदर्य रंगत देखते ही बनती है।



लोयूलो

हौल को चीनी यात्री ह्वेनसांग ने ‘लो-यू-लो’ के नाम से सम्बोधित किया था और राहुल सांस्कृत्यायन ने इसे ‘देवताओं का देश’ कह कर पुकारा था। तिब्बती भाषा में लाहौल को ‘दक्षिण देश’ कहा जाता है। लाहौल अगर हरा-भरा है तो इसके एकदम विपरीत बर्फीला रेगिस्तान है स्पीति घाटी। दूर तक निगाहें हरियाली को तरस जाती हैं लेकिन इसके बावजूद इस बर्फीले रेगिस्तान का सौंदर्य नयनाभिराम है।

मणियों की घाटी

स्पीति को ‘मणियों की घाटी’ भी कहा जाता है। स्थानीय भाषा में ‘सी’ का अर्थ है-मणि और ‘पीति’ का अर्थ-स्थान, यानि मणियों का स्थान। इस घाटी में चूंकि कई कीमती पत्थर व हीरे आज भी मिलते हैं, अत: इसे ‘मणियों की घाटी’ का खिताब मिलना स्वाभाविक ही है।

झीलें

सूरजताल, चन्द्रताल, मनि यंग छोह और ढंकर छोह लाहौल स्पीति की चार प्रमुख झीलें हैं जो बर्फीले शैल शिखरों के बीच में स्थित हैं। इन झीलों का सौंदर्य नयनाभिराम है।

जाने का समय

इन घाटियों तक ले जाने वाले दर्रे साल के ज्यादातर बर्फ से ढके रहते हैं। आम तौर पर रास्ते गरमियों में मई-जून के बाद खुलते हैं और अक्टूबर-नवंबर में सर्दी पढ़ने के साथ बंद हो जाते हैं।

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